(यथार्थपरक कविताओं से सार्थक हुयी अपनी माटी की संगोष्ठी)
चित्तौड़गढ़ 10 मार्च,2013
रचनाकार को अपने वैयक्तिक जीवन के साथ ही सामाजिक यथार्थ को ध्यान में रखकर रचनाएं गढ़ना चाहिए।जो लेखक सच और सामने आते हालातो को दरकिनार कर ग़र आज भी प्रकृति और प्यार में ही लिख रहा है तो ये समय और समाज कभी उसे माफ़ नहीं करेगा।वे तमाम शायर मरे ही माने जाए जो अपने वक़्त की बारीकियां नहीं रच रहे हैं।इस पूरी प्रक्रिया में ये सबसे पहले ध्यान रहे कि कविता सबसे पहले कविता हो बाद में और कुछ।
बेकार वो बस्ती जो भाईचारा न दे सके।
बेकार जवानी वो ज़ब्बार ज़हाँ में
बुढापे में जो माँ -बाप को सहारा न दे सके।।
-अब्दुल ज़ब्बार
जब ज़िंदगी ही कम है मुहब्बत के वास्ते
लाऊँ कहाँ से वक़्त नफ़रत के वास्ते।
शराफत नाम रखने से शराफत कब मयस्यर है
शराफत भी ज़रूरी है शराफत के वास्ते।।-अब्दुल ज़ब्बार
इस अवसर पर कविवर शिव मृदुल ने अपने कुछ मुक्तक,छंद और दोहे प्रस्तुत किये। आखिर में आम आदमी की पीड़ा विषयक कविता सुनायी। डॉ सत्यनारायण व्यास ने अपनी पहचान के विपरीत पहली बार दो गज़लें सुनायी।जिसके चंद शेर ये रहे कि
जंगल में जैसे तेंदुआ बकरी को खा गया
थी झोंपड़ी गरीब की बिल्डर चबा गया।
नज़रें गढ़ी थी और फिर मौक़ा मिला ज्यों ही
बेवा के नन्हे खेत को ठाकुर दबा गया।
उन्होंने और फिर एक कविता तू वही सुनायी जिसमें ज़िंदगी की सार्थक परिभाषाएं सामने आ सकी।इस असार संसार में उलझे बगैर हमें मानव जीवन के सार्थक होने का सोच करना चाहिए जैसा चिंतन निकल कर आया। अपनी माटी की इस संगोष्ठी में समीक्षक डॉ राजेश चौधरी, चिकित्सक डॉ महेश सनाढ्य, शिक्षाविद डॉ ए एल जैन, कोलेज प्राध्यापिका डॉ सुमित्रा चौधरी, कुसुम जैन, सरिता भट्ट, गिरिराज गिल, विकास अग्रवाल ने अपनी टिप्पणियों के साथ शिरकत की। आभार युवा विचारक डॉ रेणु व्यास ने व्यक्त किया।
रिपोर्ट:माणिक,चित्तौड़गढ़